ग़ज़ल
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समंदर दर्द अपना हर किसी से कह नहीं सकता ।
करोड़ों मील में फैला मगर वो बह नहीं सकता ।
तमन्ना यह लिए वो जा बसा मज़लूम आंखों में ,
सिमटकर बूँद होने की सजा भी सह नहीं सकता ।
बड़ा आकार में लेकिन नहीं अहसास यह उसको ,
फसे जलयान को तूफान में वो गह नहीं सकता ।
ज़रूरत हो भले कितनी भी जल की रेगजारों में ,
हिमालय की मदद के बिन वहां भी ढह नहीं सकता
पहाड़ों से चलीं नदियां उसे ढाढस बँधाने को
रहेंगी साथ उसके वो अकेला रह नहीं सकता ।
किसी दिन ए समंदर झांक ले “हलधर” दरीचे में ,
हुए जज़्बात जम पत्थर उन्हें भी तह नहीं सकता ।
“हलधर”