जिंदगी को मौत यूँ साबुत निगलती देख ली : हलधर

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पीर पर्वत की पिघल लावा उगलती देख ली ।
क्रोध में धौली नदी हमने उबलती देख ली ।

काल लहरों पर चढ़ा था रौंद कर सब ले गया ,
जिंदगी को मौत यूँ साबुत निगलती देख ली ।

नीतियों में खोट है या क्रोध ये भगवान का ,
बांध की दीवार पानी में पिघलती देख ली ।

आदमी की जिद कहूँ या ईश का इंसाफ ये ,
जिंदगी सैलाब में बेबस मचलती देख ली ।

ताश के पत्तों सरीखी टूटकर ऐसे गिरी ,
आज इक परियोजना चोला बदलती देख ली ।

भूल जाता है पुराने हादसों को आदमी ,
त्रासदी केदार वाली फिर टहलती देख ली ।

हादसे में मौत की कीमत लगी दरबार में ,
चंद सिक्कों में गरीबी यूं बहलती देख ली ।

कौन है इसका रचेता दोष किसके सर मढ़ें ,
लेखिनी “हलधर” दुखी वाणी फिसलती देख ली ।।

हलधर-9897346173