यूजीसी का न्यूनतम मानदंड और योग्यताओं से संबंधित ड्राफ्ट रेगुलेशन 2025 अपनी असंगतियों, विसंगतियों और छिपे हुए उद्देश्यों को लेकर चर्चा में है। इस ड्राफ्ट रेगुलेशन को सार्वजनिक बहस और सुझावों के लिए जारी किया गया है। इसे जारी करने से पहले जिस तरह का माहौल बनाया गया था, उसे देखकर ऐसा लग रहा था कि कोई बड़े और उल्लेखनीय बदलाव होंगे, लेकिन इसके बुनियादी स्वरूप में कोई बड़ा बदलाव लाए बिना इसे जारी किया गया है। पिछले रेगुलेशनों में शामिल रहे कुछ प्रावधानों को दोबारा प्रस्तावित किया गया है।
इस ड्राफ्ट रेगुलेशन के बिंदु संख्या तीन, जिसमें नियुक्ति और प्रमोशन की सामान्य शर्तों का जिक्र है, में सबसे उल्लेखनीय बदलाव यह है कि चार साल की डिग्री के बाद हासिल की गई पीएचडी उपाधि के आधार पर भी सहायक प्रोफेसर बना जा सकेगा। एक अन्य नया प्रावधान यह है कि किसी व्यक्ति ने स्नातक अथवा स्नातकोत्तर में कोई भी विषय पढ़ा हो, इससे नियुक्ति पर ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा। नियुक्ति का आधार पीएचडी उपाधि का विषय अथवा वह विषय होगा जिसमें यूजीसी, सीएसआईआर, या आईसीएआर की नेट परीक्षा उत्तीर्ण की गई हो। (इस पर बड़ा सवाल यह है कि जिस व्यक्ति ने यूजी/पीजी लेवल पर संबंधित विषय की पढ़ाई नहीं की है, उस विषय में महज पीएचडी या नेट उत्तीर्ण करने भर से विषयगत योग्यता कैसे पैदा हो जाएगी!)
इसी बिंदु में ऐसे लोगों को नियुक्ति में प्राथमिकता देने की बात कही गई है, जिन्होंने अपनी शिक्षा अथवा शोध कार्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से किया हो या फिर अध्यापन के लिए भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया हो। यह एक सांकेतिक कदम है, क्योंकि ऐसा कोई ठोस मानक या पैमाना नहीं रखा गया जिससे यह तय किया जा सके कि भारतीय भाषाओं के माध्यम से पढ़ने वाले अथवा पढ़ाने वालों को किस प्रकार लाभ दिया जाएगा।
इस ड्राफ्ट रेगुलेशन में एक प्रावधान “नोटेबल कंट्रीब्यूशन” यानी उल्लेखनीय सहभागिता के नाम से भी रखा गया है। इसमें जिन क्षेत्रों का वर्णन है, उसके अनुसार भविष्य में किसी भी प्रमोशन अथवा सीधी भर्ती के मामले में एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर के लिए इन नौ क्षेत्रों में से चार में उपलब्धियां प्राप्त करना जरूरी होगा। ये नौ अपेक्षित क्षेत्र भी पूरी तरह स्पष्ट नहीं हैं। इनमें स्पष्टता के अभाव के कारण भविष्य में प्रमोशन और सीधी नियुक्ति हो सकती हैं।
यूजीसी ने पिछली बार के रेगुलेशन में एक स्पष्टीकरण जारी किया था कि सीधी भर्ती और प्रमोशन में केवल “केयर लिस्टेड” रिसर्च पेपर ही मान्य होंगे। इस बार “केयर लिस्टेड” के बंधन को हटा दिया गया है। उसकी जगह पर “पियर-रिव्यूड” जर्नल्स में छपे शोध पत्रों को मान्य किया गया है। इनके साथ-साथ बुक चैप्टर आदि को भी पुनः मान्य किया गया है।
यूजीसी द्वारा पिछले तीन दशक में निर्गत न्यूनतम मानदंड और योग्यताओं से संबंधित रेगुलेशनों को देखें, तो हर दो-तीन साल में यूजीसी नियुक्ति की योग्यताओं/अर्हताओं में बदलाव लाती रही है, और इस प्रक्रिया में जिन बातों को पूर्व में खारिज किया जाता है, उन्हें अगले रेगुलेशन में फिर लागू कर दिया जाता है।
बिंदु संख्या तीन के उप-बिंदु बारह में यह स्पष्ट किया गया है कि ऐसे शिक्षकों को, जिनकी नियुक्ति केवल नेट के आधार पर होगी, उन्हें पीएचडी के बिना अपने पूरे सेवाकाल में केवल एक ही प्रमोशन मिल पाएगा। इस मामले में एक बड़ी विसंगति ये है कि एक ओर गैर पीएचडी शिक्षकों को पहले प्रमोशन के बाद कोई प्रमोशन नहीं मिलेगा, वहीं दूसरी ओर योग, संगीत, नाटक आदि विषयों में केवल स्नातक लोगों को अनुभव के आधार पर एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर बनाया जाएगा। यह स्थिति पूरी तरह विरोधाभाषी स्थिति है। इस प्रावधान को समाप्त करके गैर पीएचडी को भी सभी प्रमोशन दिए जाने चाहिए। अलबत्ता, इनके प्रमोशन की कुल अवधि में बढ़ोत्तरी की जा सकती है। यह भी रोचक है कि इस रेगुलेशन के अनुसार, पीएचडी के बिना कुलपति बन सकते हैं, लेकिन एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर नहीं बन सकते।
उत्तराखंड जैसे राज्य में बड़ी चुनौती यह है कि यहां शिक्षकों के लिए सेवाकाल के दौरान पीएचडी हेतु पूर्णकालिक अवकाश का प्रावधान नहीं है।
इस कारण कोई भी शिक्षक सेवा में रहते हुए पीएचडी करने की स्थिति में नहीं होता। और यदि पीएचडी करनी है तो अवैतनिक अवकाश लेना होगा। इससे दोहरी मार पड़ती है, एक तो वेतन नहीं मिलता और दूसरे, अवैतनिक अवकाश सीनियरिटी और कुल सेवा अवधि को प्रभावित करता है।
इस रेगुलेशन में एक तरफ यह कहा गया है कि नियुक्ति के लिए नेट अनिवार्य योग्यता होगी, और दूसरी तरफ हर स्थान पर पीएचडी उपाधि को न केवल नियुक्ति की अर्हता, बल्कि प्रमोशन में भी प्रकारांतर से अनिवार्य बनाया गया है। इन सभी नियमों में अधिक स्पष्टता की आवश्यकता है, अन्यथा यह भविष्य में समस्याएं पैदा करेंगे।
यह ड्राफ्ट रेगुलेशन बताता है कि 11 जुलाई, 2009 से पहले पीएचडी प्राप्त करने वाले लोगों की उपाधि पुराने नियमों और प्रावधानों के अनुरूप मान्य होगी। अब सवाल यह है कि यूजीसी ने पीएचडी के संबंध में विगत वर्षों में जो रेगुलेशन जारी किए हैं, क्या उनके प्रावधानों में भी बदलाव किया जाएगा? यदि उनमें बदलाव नहीं किया जाएगा, तो इस रेगुलेशन और पूर्ववर्ती रेगुलेशनों में विसंगति की स्थिति पैदा होगी।
इस रेगुलेशन के बिंदु संख्या तीन के उप-बिंदु एक में ऐसे युवाओं को भी पात्र माना गया है, जिन्होंने चार साल की यूजी डिग्री के बाद पीएचडी उपाधि प्राप्त की होगी। लेकिन सवाल यह है कि जो युवा चार साल की यूजी डिग्री को लैटरल एंट्री के तहत तीन साल में पूरा करेंगे, यदि वे इस डिग्री के बाद पीएचडी उपाधि प्राप्त कर लेंगे, तो क्या उन्हें पात्र माना जाएगा अथवा नहीं? इस पर कोई स्पष्टता नहीं है।
इसी बिंदु में इंजीनियरिंग डिग्री के मामले में नेट की अनिवार्यता निर्धारित नहीं की गई है। यानी जो व्यक्ति M.Tech होगा, उसे नेट के बिना ही असिस्टेंट प्रोफेसर नियुक्त किया जा सकेगा। यहां यूजीसी ने योग, संगीत, दृश्य कला, और परंपरागत विषयों जैसे मूर्तिकला, थिएटर आदि में नए सिरे से कई ग्रे एरिया (स्पष्टता का अभाव) पैदा कर दिए हैं। इन विषयों में ऐसे स्नातकों की असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में नियुक्ति हो सकेगी, जिन्होंने अपने फील्ड में पांच साल का अनुभव हासिल किया हो।
तथ्य यह है कि देश में सैकड़ों विश्वविद्यालय और कॉलेज योग की अकादमिक पढ़ाई स्नातकोत्तर और शोध उपाधि के स्तर पर करा रहे हैं। यही स्थिति संगीत और नाट्य कलाओं के संबंध में भी है। इन विषयों के अलग विश्वविद्यालय एवं कॉलेज भी संचालित हैं, जहां से हर साल हजारों नेट/पीएचडी निकल रहे हैं। फिर इन विषयों में इस “बैक डोर एंट्री” के पीछे का क्या आधार होगा, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। और यदि इन विषयों में यह छूट दी जा सकती है, तो फिर पत्रकारिता, ड्राइंग-पेंटिंग तथा उद्योग (प्रबंधन) से जुड़े अन्य विषयों में भी इसी प्रकार की छूट लागू होनी चाहिए थी। पूर्व में कई विषयों में इसी प्रकार की नियुक्तियां होती थीं, बाद में इन्हें परिवर्तित कर दिया गया था। अब इसे नए सिरे से फिर लागू किया गया है। संभव है कि फाइनल रेगुलेशन में “इंडियन नॉलेज सिस्टम” जैसे विषयों को शामिल करते हुए ऐसे लोगों को उच्च शिक्षा व्यवस्था में लाया जाए, जो अभी तक चली आ रही पात्रताओं को पूरी नहीं करते।
उपर्युक्त विषयों में केवल असिस्टेंट प्रोफेसर ही नहीं, बल्कि 10 साल के अनुभव के आधार पर एसोसिएट प्रोफेसर और 15 साल के अनुभव के आधार पर सीधे प्रोफेसर बनाए जाने का रास्ता भी खुल गया है।
इस रेगुलेशन में प्रोफेसर पद पर सीधी नियुक्ति को कठिन किया गया है। जो प्रावधान किए गए हैं, उनसे आने वाले दिनों में प्रोफेसर पद पर आवेदन मिलना मुश्किल हो जाएंगे। कोई भी सहायक प्रोफेसर करियर एडवांसमेंट स्कीम के अंतर्गत 12 साल में एसोसिएट प्रोफेसर और 15 साल में प्रोफेसर बनता है। डायरेक्ट भर्ती के मामले में यह व्यवस्था कर दी गई है कि केवल वही व्यक्ति प्रोफेसर बन पाएंगे, जो विगत तीन वर्षों से एसोसिएट प्रोफेसर हों। जिन्होंने ये नियम तय किया है, वे यह भूल गए कि एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में तीन वर्ष की सेवा करने वाला व्यक्ति करियर एडवांसमेंट स्कीम के अंतर्गत प्रोफेसर बन जाएगा। यदि वह इस प्रक्रिया से प्रोफेसर बन रहा है, तो उसे क्या आवश्यकता है कि वह प्रोफेसर के पद पर सीधी नियुक्ति के लिए आवेदन करे?
यही विसंगति प्राचार्य पद को लेकर भी की गई है। एक तरफ सरकार यूजी और पीजी डिग्री के भेद को खत्म कर रही है, क्योंकि चार वर्षीय यूजी डिग्री के बाद पीएचडी हो सकती है और इसके बाद सहायक प्रोफेसर भी बना जा सकता है। दूसरी ओर, प्राचार्य पद पर इस भेद को गहरा किया जा रहा है। 2016 से पूर्व स्नातक और स्नातकोत्तर कॉलेजों के प्राचार्य का वेतनमान एक समान किया गया था। 2016 में दोनों पदों की न्यूनतम योग्यता एक समान रखते हुए इनका वेतनमान क्रमशः एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के स्तर पर निर्धारित किया गया। नए प्रस्तावित रेगुलेशन में भी स्नातक कॉलेज का प्राचार्य एसोसिएट प्रोफेसर और स्नातकोत्तर कॉलेज का प्राचार्य प्रोफेसर की श्रेणी में होगा।
इनकी जो योग्यता तय की गई है, उसमें केवल अनुभव के वर्ष घटाए गए हैं। बाकी, यह पूर्ववत अनिवार्य किया गया है कि जब कोई व्यक्ति स्नातक उपाधि वाले महाविद्यालय के प्राचार्य पद हेतु आवेदन करेगा, तो उसे एसोसिएट प्रोफेसर होना चाहिए। अब यदि कोई व्यक्ति पहले से ही एसोसिएट प्रोफेसर है, तो फिर वह इस पद पर क्यों जाएगा?
इसकी एक वजह यह भी है कि कोई भी एसोसिएट प्रोफेसर अपनी मूल संस्था में, चाहे वह कॉलेज हो अथवा विश्वविद्यालय, तीन साल बाद प्रोफेसर बन जाएगा। लेकिन, यदि वह प्राचार्य के रूप में किसी कॉलेज में जाता है, तो वहां पर पांच साल के पहले कार्यकाल (और पांच साल के दूसरे कार्यकाल यानी 10 साल) के दौरान उसे एसोसिएट प्रोफेसर ही रहना होगा।
एक विसंगति यह भी पैदा होगी कि जब स्नातक कॉलेज में 15 साल की सेवा के बाद करियर एडवांसमेंट स्कीम के अंतर्गत कोई शिक्षक प्रोफेसर के लिए इंटरव्यू देगा, तो उसके साक्षात्कार में संबंधित स्नातक कॉलेज का प्राचार्य सम्मिलित होने का पात्र ही नहीं होगा। इसका कारण यह है कि ड्राफ्ट रेगुलेशन कहता है कि किसी भी प्रमोशन या सेलेक्शन कमेटी में समान वेतनमान अथवा उच्च वेतनमान का व्यक्ति ही सदस्य के रूप में सम्मिलित हो सकता है।
चूंकि प्राचार्य का वेतनमान एसोसिएट प्रोफेसर के बराबर होगा, इसलिए वह प्रोफेसर के साक्षात्कार में सम्मिलित नहीं हो सकेगा। यह अपने आप में एक विचित्र स्थिति होगी कि जिस कॉलेज में कैरियर एडवांसमेंट स्कीम के अंतर्गत प्रोफेसर कार्यरत होंगे, उनका टीम लीडर एसोसिएट प्रोफेसर ग्रेड में कार्यरत होगा।
यूजीसी के मौजूदा ड्राफ्ट रेगुलेशन और पूर्ववर्ती रेगुलेशनों में सहायक प्रोफेसर से प्रोफेसर पद तक के चार प्रमोशन पाने हेतु सेवा वर्षों का जो ढांचा तय किया गया है, उसका आधार समझ से परे है। किसी असिस्टेंट प्रोफेसर को पहला प्रमोशन चार साल पर, दूसरा प्रमोशन अगले पांच साल पूरे होने पर, तीसरा प्रमोशन तीन साल पर, और चौथा प्रमोशन यानी प्रोफेसर बनने का मौका तीन साल पर मिलता है। प्रमोशन हेतु वर्षों के निर्धारण का यह नियम कहां से आया है, इसका कोई स्पष्ट स्रोत और आधार दिखाई नहीं देता।
बेहतर यह होता कि यूजीसी इन चारों प्रमोशनों को चार-चार-चार-तीन साल के अंतराल पर रखती और जिनकी डायरेक्ट भर्ती करनी है, उनके मामले में इस अवधि को एक-तिहाई घटा दिया जाता।
गौरतलब है कि इस रेगुलेशन के बाद पीएचडी उपाधि से संबंधित नियम भी बदलने होंगे। उत्तराखंड समेत कई राज्यों में अभी तक स्नातक कॉलेजों में पीएचडी की अनुमति नहीं दी जाती। जिन कॉलेजों में स्नातकोत्तर उपाधि है, केवल उन्हीं को शोध केंद्र बनाया जाता है। अब चूंकि चार वर्षीय स्नातक उपाधि के बाद सीधे पीएचडी की जा सकेगी, इसलिए स्नातक कॉलेजों में भी शोध की अनुमति देनी होगी (देनी चाहिए) । यहां एक रोचक बात यह है कि विश्वविद्यालय और कॉलेजों में एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर पद पर प्रमोशन संबंधी नियमों में पीएचडी और शोध अनुभव में अंतर रखा गया है। क्या इसका मतलब यह है कि इन कॉलेजों में भले ही चार वर्षीय स्नातक उपाधि संचालित होगी, लेकिन इन्हें पीएचडी करने का अधिकार नहीं मिलेगा? यदि इन कॉलेजों में पीएचडी करने का अधिकार नहीं दिया जाएगा, तो भविष्य में इन संस्थाओं के शिक्षकों लिए किसी विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर बनने के रास्ते भी हमेशा के लिए बंद हो जाएंगे।
इस रेगुलेशन में दो-तीन अन्य उल्लेखनीय बातें भी की गई हैं, जैसे कि प्राइवेट सेक्टर में की गई सेवा को भी सरकारी क्षेत्र की नौकरी के समान मान्य किया जाएगा। जो शिक्षक कॉन्ट्रैक्ट पर काम करेंगे, उन्हें भी नियमित शिक्षकों के बराबर वेतन दिया जाएगा। लेकिन कॉन्ट्रैक्ट की अवधि को अब केवल छह महीने तक सीमित कर दिया गया है।
शिक्षकों की वरिष्ठता के मामले में यह निर्धारित कर दिया गया है कि प्रमोशन होने की स्थिति में प्रमोट किया गया व्यक्ति, उस शिक्षक से वरिष्ठ होगा जो अभी प्रमोट नहीं हुआ है, भले ही दोनों का पदनाम और पद ग्रहण की तिथि समान क्यों न हो।
इस रेगुलेशन से ऐसा लगता है कि यूजीसी आने वाले दिनों में अपने एकेडमिक स्टाफ कॉलेजों, जिन्हें अब एचआरडीसी (HRDC) कहा जाता है, की या तो संख्या सीमित करेगी या उन्हें पूरी तरह बंद कर देगी। क्योंकि प्रमोशन हेतु अनिवार्य ओरिएंटेशन प्रोग्राम और रिसर्च प्रोग्राम को अब पूरी तरह ऑनलाइन किया जाएगा। इसमें यह भी उल्लेख है कि केवल वही ओरिएंटेशन प्रोग्राम, रिफ्रेशर कोर्स, फैकल्टी डेवलपमेंट प्रोग्राम, या रिसर्च मेथडोलॉजी कोर्स मान्य होंगे जिन्हें यूजीसी, एआईसीटीई, या अन्य किसी रेगुलेटरी बॉडी द्वारा मान्यता प्राप्त हो। अर्थात यदि कोई कॉलेज, संस्था, या विश्वविद्यालय अपने स्तर पर इस प्रकार का कोई कोर्स आयोजित करता है, तो उसे प्रमोशन के लिए मान्य नहीं किया जाएगा।
एक अन्य बदलाव यह प्रस्तावित किया गया है कि जिस प्रकार से जुलाई और जनवरी में वार्षिक इन्क्रीमेंट दिया जाता है, उसी तरह से कोई भी नया प्रमोशन जुलाई अथवा जनवरी से ही लागू माना जाएगा। इस ड्राफ्ट रेगुलेशन से यह भी साफ लगता है कि पूर्व में निर्धारित स्क्रीनिंग की प्रक्रिया को भी अब बदलना होगा। क्योंकि संबंधित स्क्रीनिंग प्रक्रिया में स्नातकोत्तर में प्राप्त अंकों और पीएचडी उपाधि का वेटेज 50% से अधिक का है।
अब यदि कोई युवा बिना स्नातकोत्तर उपाधि के पीएचडी अथवा केवल नेट के आधार पर आवेदन करेगा, तो मौजूदा स्क्रीनिंग पैरामीटर में वह कभी इंटरव्यू मेरिट में स्थान नहीं बना सकेगा।
नए रेगुलेशन में जिस बात की सबसे अधिक चर्चा हो रही है, वह है- कुलपति के लिए बाहरी या गैर अकादमिक लोगों का रास्ता खोल देना। अभी तक यह अनिवार्य था कि केवल वही व्यक्ति कुलपति बनाया जा सकता है जिसने प्रोफेसर के रूप में अथवा समकक्ष पद पर 10 साल तक काम किया हो। लेकिन नए रेगुलेशन में वरिष्ठ स्तर पर कार्यरत किसी नौकरशाह, उद्योगपति, नीति-निर्माता, या पीएसयू में उच्च पदों पर आसीन लोगों को भी वाइस चांसलर बनाया जा सकेगा। एक दशक पहले तक ऐसी ही व्यवस्था लागू थी। अभी तक, नियमों से परे जाकर कुलपति नियुक्त करने के कार्य को राज्य सरकारें छिपे ढंग से करती थीं। जैसे कि नए स्थापित विश्वविद्यालय के पहले कुलपति की नियुक्ति अपने स्तर से करना अथवा पात्रता पूरी न करने वाले व्यक्ति को कार्यवाहक कुलपति बना देना। अब यूजीसी ने इस झंझट को खत्म कर दिया है और सभी लोगों के लिए द्वार खोल दिए हैं। इसका परिणाम यह होगा कि न केवल सरकारी, बल्कि विशेषतः प्राइवेट विश्वविद्यालयों में “घरेलू उद्यमी” भी कुलपति बने नजर आएंगे।
चूंकि यह ड्राफ्ट रेगुलेशन है, इसलिए इसमें कुछ बदलाव संभव हैं। लेकिन ऐसा नहीं माना जा सकता कि इसे पूरी तरह रद्द किया जाएगा या नए सिरे से निर्धारित किया जाएगा। ऐसे में, यह आवश्यक है कि उच्च शिक्षा से जुड़े लोग और शिक्षाविद इस ड्राफ्ट रेगुलेशन की विसंगतियों के बारे में यूजीसी एवं शिक्षा मंत्रालय को लिखित रूप से अवगत कराएं।
यह ड्राफ्ट रेगुलेशन कितना स्टीरियोटाइप है, इसका अनुमान बिंदु संख्या 3.7 के प्रावधान से लगाया जा सकता है, जिसमें कहा गया है कि जिन्होंने 19 सितंबर, 1991 से पहले पीएचडी उपाधि प्राप्त की है, उन्हें नियुक्ति के समय पीजी डिग्री में पांच प्रतिशत अंकों की छूट दी जाएगी। अब आप खुद सोचिए कि जिस व्यक्ति ने 1991 में पीजी उपाधि प्राप्त की होगी, वह इस समय लगभग 58-60 वर्ष का हो चुका होगा। तो क्या 60 वर्ष के किसी व्यक्ति को सहायक प्रोफेसर नियुक्त किया जाएगा?
ऐसे ही और भी अनेक बिंदु हैं, जो पुराने रेगुलेशनों की भांति ही इसमें भी ज्यों के त्यों रखे गए हैं, चाहे उनकी कोई उपयोगिता हो या न हो। मोटे तौर यह कहा जा सकता है कि यह ड्राफ्ट रेगुलेशन NEP-2020 के उद्देश्यों को पूरा करता हुआ नहीं दिख रहा है। इस व्यापक मंथन की आवश्यकता है।
*ड्राफ्ट रेगुलेशन में सुधार हेतु सुझाव-*
1. सहायक प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर पद पर किसी भी तरह की ऐसी व्यवस्था नहीं रखी जानी चाहिए जिससे बैक डोर एंट्री की संभावना बनती हो। सभी विषयों में, चाहे वह नाटक हो, संगीत अथवा योग हो, उनमें भी न्यूनतम योग्यता अन्य विषयों की तरह ही होनी चाहिए।
2. कॉलेज प्राचार्य के मामले में स्नातक और स्नातकोत्तर प्राचार्य के भेद को खत्म करना चाहिए अथवा स्नातक प्राचार्य की अर्हता/योग्यता को एसोसिएट प्रोफेसर के समान रखना चाहिए।
3. जिन लोगों ने भारतीय भाषाओं के माध्यम से अध्ययन अथवा अध्यापन किया है, उन्हें नियुक्ति में किस तरह से प्राथमिकता दी जाएगी, इसका स्पष्ट मैकेनिज्म तैयार किया जाना चाहिए।
4. चयन समिति से पहले एक्सपर्ट-कम-स्क्रीनिंग कमेटी का प्रावधान होना चाहिए, ताकि जो मानक तय किए गए हैं, उन मानकों की जांच का बोझ कुछ घंटे के लिए बैठी सिलेक्शन कमेटी पर न हो।
5. गैर-पीएचडी शिक्षकों को फुल टाइम प्री-पीएचडी की अनिवार्यता से मुक्त करते हुए अंशकालिक पीएचडी की अनुमति दी जानी चाहिए।
6. सभी प्रकार की पीएचडी, चाहे वह 2009 से पहले की हो अथवा 1991 से पहले की, उन्हें समान रूप से अर्हता में सम्मिलित किया जाना चाहिए।
7. लैटरल एंट्री के माध्यम से प्राप्त की गई डिग्रियों के संबंध में स्पष्टता होनी चाहिए, ताकि नियुक्ति के समय योग्यता/अर्हता को लेकर किसी प्रकार का सवाल खड़ा न हो।
8. इंजीनियरिंग विषयों के लिए भी नेट को ही आधार बनाया जाना चाहिए। जिन विषयों में नेट नहीं है, उनमें सीएसआईआर की तर्ज पर AICTE को नेट परीक्षा आरंभ करने की अनुमति दी जानी चाहिए। (निर्देशित किया जाना चाहिए।)
9. सभी प्रकार का अनुभव (जिसमें अतिथि शिक्षक, अस्थायी शिक्षक, अंशकालिक शिक्षक, तदर्थ शिक्षक, सहयोगी शिक्षक, कार्यभार आधारित शिक्षक आते हैं) नियुक्ति की प्रक्रिया के दौरान मान्य किया जाना चाहिए।
10. स्नातक उपाधि संचालित करने वाले कॉलेजों सहित सभी कॉलेजों में विश्वविद्यालयों के विभागों के समान ही रिसर्च की अनुमति प्रदान की जानी चाहिए।
11. यूजीसी रेगुलेशन के साथ-साथ पीएचडी रेगुलेशन को भी परिवर्तित किया जाना चाहिए। साथ ही, नैक मूल्यांकन से केयर लिस्टेड रिसर्च पेपर की अनिवार्यता को समाप्त किया जाना चाहिए।
12. ओरिएंटेशन प्रोग्राम, रिफ्रेशर कोर्स, तथा शोध प्रविधि पाठ्यक्रमों को ऑनलाइन एवं ऑफलाइन दोनों मोड में संचालित करना चाहिए। सभी एचआरडीसी को ज्यादा बेहतर सुविधाओं के साथ विकसित किया जाना चाहिए।
13. प्रमोशन में चार वर्ष, पांच वर्ष, तीन वर्ष और तीन वर्ष की व्यवस्था को समाप्त करते हुए चार-चार-चार-तीन वर्ष की व्यवस्था को लागू करना चाहिए।
14. गैर-पीएचडी शिक्षकों को भी प्रोफेसर पद तक प्रमोशन दिया जाना चाहिए। उनके प्रमोशन की अवधि में पीएचडी शिक्षकों की तुलना में एक-एक वर्ष की बढ़ोतरी की जा सकती है। तब उनके लिए प्रमोशन के वर्षों का स्ट्रक्चर 5-5-5-4 वर्ष का होगा।
15. भर्ती से पूर्व की स्क्रीनिंग के नियमों को पूर्ण रूप से स्पष्ट करना चाहिए।
16. प्रोफेसर पद पर चयन हेतु एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में तीन वर्ष के अनुभव की बाध्यता को समाप्त किया जाना चाहिए।
17. कॉन्ट्रैक्ट शिक्षकों हेतु अधिकतम छह महीने के नियम को समाप्त करते हुए इन्हें भी प्रोफेसर ऑफ प्रैक्टिस की तरह 3 वर्ष या जब तक नियमित नियुक्ति न हो जाए, तब तक कार्य करने दिया जाना चाहिए।
18. कुलपति के रूप में ऐसे व्यक्तियों को नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए, जिन्होंने पूर्व में कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय प्रणाली में कार्य न किया हो।
19. कुलपति पद हेतु यदि अन्य क्षेत्रों के लोगों को अनुमति दी जाती है तो उनके लिए भी पीएचडी उपाधि अनिवार्य होनी चाहिए।
20. रेगुलेशन के विभिन्न प्रावधानों को उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया जाना चाहिए।
21. राज्यों में यूजीसी के सभी रेगुलेशन और नियमों को अनिवार्य रूप से तत्काल लागू किया जाना चाहिए।
22. पीजी विषय की बाध्यता खत्म करके केवल पीएचडी/नेट विषय के आधार पर नियुक्ति के प्रावधान को लागू नहीं करना चाहिए।
23. नए रेगुलेशन और नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रावधानों के अनुरूप यूजीसी (CSIR और ICAR सहित) नेट के नियमों और प्रावधानों को परिवर्तित किया जाना चाहिए।
24. प्रमोशन/सीधी भर्ती की अनिवार्य योग्यता बनाए गए नोटेबल अचीवमेंट्स के सभी नौ बिंदुओं की विस्तृत व्याख्या होनी चाहिए।
25. ड्राफ्ट रेगुलेशन में प्रस्तावित प्रावधानों के पीछे के आधारों/कारणों को भी सार्वजनिक किया जाना चाहिए।