जैन-धर्म कोहिनूर हीरा:डॉ अशोक जैन

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*जैन-धर्म की आन- बान और शान संपूर्ण विश्व में अद्वितीय और बेमिसाल है। भले ही जैन-धर्म के अनुयायियों की संख्या विश्व में सबसे कम है परन्तु  इसके सिद्धांत और प्रयोग बहुत वैज्ञानिक और व्यवहारिक हैं। कोहिनूर हीरा के ग्राहक विश्व में सर्वाधिक नहीं होते, कोई विरला पारखी ही होता है। धर्म की महत्ता संख्या से नहीं, उनकी गुणवत्ता (क्वालिटी) से है।*
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*कोई भी किसी भी जाति -कुल-गोत्र – धर्म में पैदा होने वाले जैन-धर्म की आराधना और मान्यता कर सकते हैं। प्राणीमात्र का यह धर्म है।  सुख-शांति से जिओ और सभी को सुख -शांति से जीने दो की प्ररेणा /शिक्षा यहीं पर दी जाती है।*
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*विश्व की सभी आत्माएं समान है , एक जैसे स्वभाव से भरपूर हैं पर एक नहीं है और कोई छोटी -बड़ी नहीं है और कोई किसी का कर्ता -धर्ता-हर्ता नहीं है, सभी साथ में रहते हुए सब स्वतंत्र, स्वाधीन और भिन्न-भिन्न है, भगवान जन्मते नहीं,भगवान अपने आत्म पुरूषार्थ को जागृत कर बनते हैं- यह घोषणा तीर्थंकर भगवान महावीर ने चतुर्विध संघ/गणधरों , मुनियों, ज्ञानी भव्य जीवों और सौ इन्द्रों की उपस्थिति में समवशरण (धर्म- सभा) में की है।*
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 *जैन-धर्म खुद तो जबर्दस्त है पर वह किसी के साथ जबर्दस्ती कभी नहीं करता। इस धर्म को समझने के लिए दिमाग के साथ शांत और कोमल दिल भी होना चाहिए।*
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*व्यवहार में अहिंसा, विचारों में अनेकांत, वाणी में स्याद्वाद और जीवन में अपरिग्रह – यही जैन-धर्म है।  प्रत्येक वस्तु की अनादि -अनंतता, स्वतंत्रता, सार्थकता और स्वावलंबी बनाने की उद्घोषणा विश्व में यही धर्म करता है।*
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*परमात्मा की उपासना परमात्मा बनने के प्रयोजन से है। परमात्मा का दर्शन परमात्मा को खुश करने के लिए नहीं अपितु आत्मानुभूति के लिए है। परमात्मा का नाम और जाप आत्मविश्वास को बढ़ाने और चित्त की एकाग्रता और स्थिरता के लिए है।मांगना, लेना -देना,*
*भिखारीपन की प्रवृत्ति,गुलामी और दासता का यहां कोई काम  और स्थान नहीं है।*
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*आत्मानंद के लिए परमात्मा की भक्ति की जाती है। सभी जिनालय शिक्षालय है, भिक्षालय नहीं है।*
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*जैन-धर्म का सार यदि एक शब्द में कहना है तो वह शब्द है – वीतरागता।* *वीतरागता और अहिंसा एक दूसरे के पर्यायवाची हैं।*
*वीतरगता ही सर्वज्ञता का मूल कारण है।*
*जैन-धर्म में व्यक्ति की नहीं,  व्यक्तित्व अर्थात् आत्मिक गुणों की पूजा की जाती है।*
 *अप्पा सो परमप्पा -यह जैन-धर्म का मूल मंत्र है। यह धर्म अपने अनुयायियों को सिर्फ भक्त बनाकर नहीं रखता, बल्कि उसे परमात्मा बनने का पूर्ण अधिकार देता है। नर में नारायण, भक्त में भगवान, पामर में परमात्मा देखने का विधान /प्रयोग इसी धर्म में है।*
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*जैन-धर्म कोहिनूर हीरा है मगर दुर्भाग्य है कि आज वह वणिक समाज  के हाथों में कैद है। जिन्हें अपने अनमोल धर्म की  शिक्षा संपूर्ण विश्व में प्रचारित करने की  फुर्सत ही नहीं है। धन कमाने की होड़  और मान कषाय की पूर्ति में लिप्त होने से धर्ममय जीवन जीने और उसके प्रचार -प्रसार की ओर ध्यान ही नहीं है।*
*इससे बढ़िया और सर्वोत्तम धर्म विश्व में कोई नहीं है, जहां बाह्य आडम्बर और थोथे क्रिया कांड की उपासना नहीं होती। मात्र वीतरागता और सर्वज्ञता को पूजा जाता है।*
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*किसी ने सही कहा है* –
*कोई चांद को पूजे, कोई सूरज पूजन जाता है।*
*हम जैनी उनको पूजे जो वीतराग- सर्वज्ञ कहलाता है।*
*तीर्थंकर चौबीस हमारे, जैन-धर्म से नाता है।*
*दुनिया में बस यही धर्म जो मोक्षमार्ग पर चलना सिखलाता है।।*
*इस धर्म को सभी जाने, पहचाने और आचरण में लाएं।*
2.
*दान और त्याग एक नही हैं*
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1-
*त्याग धर्म है और दान पुण्य है।*
2-
*त्याग शुद्धभाव है और दान शुभ भाव।*
3-
*त्यागी के रंचमात्र परिग्रह नहीं होता और दानी के ढेर सारा परिग्रह होता है।*
4-
 *त्याग अनुपयोगी, अहितकारी वस्तु का किया जाता है और दान उपयोगी और हितकारी वस्तु का किया जाता है*।
5-
*त्याग किया जाता है और दान दिया जाता है।*
6-
*त्याग खोटी चीज का किया जाता है और दान अच्छी चीज का दिया जाता है।*
7-
*त्याग में स्व उपकार का भाव मुख्य रहता है और दान में परोपकार का मुख्य रहता है।*
8-
*त्याग स्वाधीन क्रिया है और दान पराधीन क्रिया है।*
9-
*दानी से त्यागी बड़ा होता है, क्योंकि त्याग धर्म है और दान पुण्य।*
10-
 *दान के लिए तीन का होना जरूरी है – देने वाला, लेने वाला और देने वाली वस्तु जबकि त्याग में ऐसा कुछ भी नहीं है जो आपके पास नहीं है उसका त्याग किया जाता है। जैसे -मैं तीन लोक की संपदा का त्याग करता हूं।*
11-
*कुछ का त्याग ही होता है,दान नहीं जैसे – राग -द्वेष, मां- बाप, स्त्री पुत्र आदि।*
*कुछ का दान ही होता है,त्याग नहीं जैसे – ज्ञान दान और अभय दान।*
*कुछ का त्याग भी होता है और दान भी.जैसे-आहार दान और आहार त्याग, औषधि दान और औषधि त्याग।*
12-
 *त्याग शुद्धात्मा के ग्रहण पूर्वक मोह- राग- द्वेष होता है और दान उत्तम, श्रेष्ठ वस्तु को सुपात्र जीवों को प्रदान करने पर होता है।*
13-
*ज्ञान से त्याग और त्याग से शांति मिलती है और उत्तम दान से भोग भूमि का सुख मिलता है।*
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 *सुपात्र जीवों को श्रद्धा पूर्वक दिया गया दान ही मोक्षमार्ग में सहकारी होता है। मिथ्यादृष्टि, कुपात्र और अपात्र जीवों को दान करूणा भाव से दिया जाता है। जो कुभोगभूमि में जाने का कारण बनता है ।*
*त्याग में नाम, काम,दाम और धाम से मोह छोड़ना पड़ता है, जो मुक्ति का कारण है।*
15
 *त्याग पर में नहीं अपने ज्ञान में होता है।पर को पर जानकर,स्व को स्व मानकर, पर से विरत हो जाना और अपने में रत होना त्याग  है।*
*दान अपने आत्मस्वरूप से भिन्न परवस्तु जो न्याय -नीति , पुण्योदय से प्राप्त होती है ऐसे श्रेष्ठ, उत्तम वस्तु पात्र जीवों को दी जाती है। जो आत्मकल्याण में सहायक होती है।*
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 *निरभिमानी होकर ही दान दिया जाता है , आत्मप्रशंसा के उद्देश्य से दिया दान, दान नहीं है।*
*त्याग भी आत्मानंद,कर्मक्षय और आत्मलाभ के लिए किया जाता है, आत्मप्रशंसा के लिए नहीं।*
17-
*ज्ञान, आहार , औषधि और अभय आदि चार दान के अतिरिक्त दान के पांच भेद और आते हैं -* *पात्रदत्ति,दयादत्ति,  समदत्ति,अन्वयदत्ति और सकलदत्ति।*
*त्याग निज शुद्धात्मा के ग्रहण पूर्वक आभ्यंतर (14) और बाह्य परिग्रह (10)का किया जाता है।*
18-
*दान छिपा -छिपा कर किया जाता है, छपा -छपा कर नहीं. दान का और त्याग का प्रदर्शन नहीं होता है। जहां प्रदर्शन, प्रसिद्धि का भाव है वहां धर्म भी नहीं और पुण्य भी नहीं होता।*
🙏
*डॉ अशोक जैन गोयल दिल्ली*