देहरादून। आज का दिन हम सब शिक्षक दिवस या टीचर्स डे के रूप में मना रहे हैं। इस दिन हम अपने अध्यापकों और गुरुओं का सम्मान करते हैं। कई शिष्य इस मौके पर अपने अध्यापकों के लिए अनेक तरह के उपहार लेकर जाते हैं। कोई ग्रीटिंग कार्ड बनाकर लेकर जाते हैं तो कोई कुछ अन्य उपहार। इस तरह वे उनके प्रति अपनी श्रद्धा और आभार प्रकट करते हैं।
इस संसार में जब भी हमारे बच्चे यदि कोई विषय सीखना चाहते हैं तो वे एक ऐसे अध्यापक के पास जाते हैं जो उसमें निपुण हो। हम सभी यह अच्छी तरह जानते हैं कि एक अध्यापक की बच्चों के जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। उनके मार्गदर्षन में बच्चा न केवल पढ़ना-लिखना सीखता है बल्कि भविष्य में बढ़ा होकर उन्हें क्या बनना है? इसकी जानकारी भी उन्हें अध्यापक के द्वारा ही मिलती है।
इसी प्रकार यदि हम अपने आपको आध्यात्मिक रूप से विकसित करना चाहते हैं तो उसके लिए हमें वक्त के किसी पूर्ण गुरु के चरण-कमलों में जाना होगा क्योंकि एक पूर्ण सत्गुरु अध्यात्म के विषय में निपुण होते हैं। इस धरती पर हर समय केाई न कोई पूर्ण सत्गुरु अवश्य मौजूद होते हैं, जो हमें ध्यान-अभ्यास के द्वारा अपने अंतर में मौजूद प्रभु-सत्ता के साथ जुड़ने में हमारी मदद करते हैं। प्रभु की सत्ता किसी न किसी मानव शरीर के माध्यम से अवश्य कार्य करती है।
जब हम उनके पास जाते हैं तभी हमें पता चलता है कि चैरासी लाख जियाजून में केवल मानव चोले में ही हम अपनी आत्मा का मिलाप पिता-परमेश्वर से करवा सकते हैं, जोकि मानव जीवन का मुख्य उद्देष्य है। वो हमें समझाते हैं कि पिता-परमेश्वर प्रेम के महासागर हैं, हमारी आत्मा उनका अंष होने के नाते प्रेम है और पिता-परमेष्वर को पाने का ज़रिया भी प्रेम ही है।
एक अध्यापक के अंदर शिष्य के जीवन को बदल देने की शक्ति होती है। यदि अध्यापक ऐसे छात्रों को पढ़ाता है जिनमें सदाचार की कमी होती है तो वो उनको धीरे-धीरे सदाचारी व्यक्ति में बदल देता है। यही काम एक सत्गुरु करते हैं। वे काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से भरे दुःखी इंसानों को अपनाते हैं और उनको ऐसे इंसानों में बदल देते हैं जो अहिंसा, पवित्रता, नम्रता, सच्चाई, निःस्वार्थ भाव और प्रेम से भरे हुए हों। वे ऐसा कैसे करते हैं? वे यह सब प्रभु-प्रेम की शक्ति से करते हैं।
वे न केवल आंतरिक अनुभव को पाने की विधि के बारे में हमें समझाते हैं बल्कि व्यक्तिगत तौर पर उसका हमें अनुभव भी देते हैं क्योंकि केवल बातें करने से या पढ़ने से हम अध्यात्म नहीं सीख सकते। यह केवल व्यक्तिगत अनुभव से ही सीखा जा सकता है और वो अनुभव हमें केवल एक पूर्ण सत्गुरु ही प्रदान कर सकता है।
इसलिए हमें एक पूर्ण गुरु की शरण में जाना चाहिए। ऐसे सत्गुरु जब हमें दीक्षा अथवा नामदान देते हैं तो वे हमें ध्यान-अभ्यास की विधि सिखाते हैं। वे हमें बताते हैं कि हम अपने ध्यान को दो भ्रूमध्य आँखों के बीच एकाग्र करें, जिसे ‘षिवनेत्र’ भी कहा गया है। जैसे-जैसे हम ध्यान-अभ्यास समय देते हैं तो हम अपने अंदर प्रभु की ज्योति और श्रुति का अनुभव करते हैं, जिससे कि हमारे जीवन में एक बदलाव आता है। हम अपने अंदर शांति और प्रेम का अनुभव करते हैं।
जिस प्रकार एक अध्यापक का कार्य बच्चों को शिक्षा के ज़रिये उनकी इच्छा के अनुसार दुनियावी मकसद तक पहुँचाना होता है। ठीक उसी प्रकार एक सत्गुरु भी प्रेम के ज़रिये पिता-परमेश्वर से जुदा हुई रूहों को उनके निजधाम सचखंड पहुँचा देते हैं।
तो आईये! आज के दिन हम न सिर्फ अपने अध्यापकों का सम्मान करें बल्कि हम अपने आध्यात्मिक गुरुओं के प्रति भी आभार प्रकट करें क्योंकि उनके द्वारा ही हम इस जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति पाकर पिता-परमेष्वर में लीन हो सकते हैं। ऐसे पूर्ण सत्गुरुओं को कोटि-कोटि वंदन।