धर्म-संस्कृति

सात सौ जैन मुनियों की रक्षा का प्रतीक-रक्षा बंधन पर्व

भारतीय पर्वों की शृंखला में पावन पर्व रक्षा बंधन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह पर्व भारतीय जन जीवन में भ्रातृत्व, प्रेम एवं सौहार्दपूर्ण स्नेह की पवित्र निर्मलधारा को प्रवाहित करता है। भगिनी द्वारा भ्राता के हाथ में बांधा गया पावन रक्षा सूत्र अबला की रक्षा का प्रतीक बन जाता है और भ्राता अपने कर्तव्य के प्रति सदैव सजग रूप से रक्षा सूत्र की आन का निर्वाह जीवनपर्यन्त करता है। अतरू यह मात्र भौतिक बंधन ही नहीं है, अपितु भावना पूर्ण स्नेहसिक्त हृदय बंधन है। एक बार सात सौ जैन मुनियों पर घोर उपसर्ग हुआ और समस्त मुनि संघ पर भीषण संकट छा गया। तब मुनिश्री विष्णु कुमार ने अपनी विक्रिया ऋद्धि द्वारा संघ पर हो रहे उपसर्ग को शांत किया और सात सौ मुनियों की रक्षा की। तब ही से यह पर्व जैन समाज द्वारा रक्षा पर्व के रूप में मनाया जाने लगा। घटना प्रसंग का प्रारम्भ तब से होता है जब जैन धर्म के उन्नीसवें तीर्थंकर भगवान मल्लिकुमार के शासन काल में उज्जयिनी नगरी में श्री वर्मा नामक राजा राज्य करता था। राजा विद्वान, गुणी और धर्मात्मा था। उसके राज्य संचालन में परामर्श देने वाले एवं सहायता करने वाले बलि, बृहस्पति, प्रह्लाद और नमूचि नामक चार बुद्धिमान एवं पराक्रमी मंत्री थे। ये चारों मंत्री यद्यपि योग्य एवं गुणी थे, किन्तु जैन धर्म के प्रति उनका कट्टर विरोध था, जबकि राजा जैन धर्मानुयायी था।
एक बार उज्जयिनी में सात सौ जैन मुनियों का विशाल संघ विचरण करता हुआ आया। उस समय संघ का नेतृत्व श्री अकम्पानाचार्य जी कर रहे थे। नगर में संघ के पदार्पण का समाचार सुनते ही नगरवासीजन पूजन द्रव्य लेकर उनके दर्शन हेतु जाने लगे। राजा को भी जब यह समाचार ज्ञात हुआ तो उन्होंने भी मुनिवरों के दर्शन लाभ लेने की इच्छा से मंत्री सहित वहां जाने का निश्चय किया। मंत्रियों को भी अनिच्छा पूर्वक राजा के साथ जाना पड़ा।
संघ के नायक श्री अपंकपनाचार्य द्वादशांग के पाठी एवं निमित्त ज्ञानी थे। निमित्त ज्ञान से किसी अनिष्ट प्रसंग का ज्ञान कर उन्होंने संघ के समस्त मुनियों को आदेश दिया कि राजा के साथ जब मंत्रिगण दर्शनार्थ यहां आवें तब कोई भी उनके साथ किसी प्रकार का वादकृविवाद अथवा शास्त्रार्थ न करे, अन्यथा समस्त संघ पर महान संकट आने की आंशका है। आचार्यश्री के आदेश को समस्त मुनियों ने शिरोधार्य किया। अतरू जब राजा और मंत्रीगण दर्शनार्थ वहां आए उस समय आचार्य श्री की आज्ञानुसार समस्त मुनिवर मौन धारण कर आत्मध्यान में लीन हो गए। ध्यानस्थ मुनियों की उपशांत मुद्रा को देखकर राजा को अत्यन्त हर्ष हुआ। किन्तु मंत्रियों का अंतरूकरण कुटिल भावों से भर गया। अतरू जब वे नगर की ओर लौट रहे थे तब मंत्रियों ने मुनियों की निंदा करते हुए राजा से कहा ‘‘देखा राजन्! कितने ढोंगी हैं ये सब मुनिगण, आपके पहुंचने पर ध्यान का ढोंग करके चुपचाप बैठे रहे, ताकि आपके सामने उनकी पोल न खुल जाय।
राजा किन्हीं दूसरे विचारों में निमग्न था। अतरू मंत्रियों की बात पर उसने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया। मंत्रियों ने राजा के मौन को अपनी बात का समर्थन समझा और वे मुनि निंदा हेतु अधिक प्रोत्साहित हुए।
उसी समय सामने से श्रुतसागर नामक एक मुनिराज आ रहे थे जो नगर में आहार ग्रहण करने हेतु गए थे। उन्हें आचार्यजी के आदेश के विषय में ज्ञात नहीं था। अतरू वे निर्विकार भाव से बिना किसी अनिष्ट की आशंका के चले आ रहे थे। सामने से आते हुए मुनिराज को देखकर मंत्रियों का मन पुनरू कुटिल भावों से भर गया और उन्होंने मुनिराज की निंदा करते हुए राजा से कहाकृ‘देखिये, राजन् ! यह मुनि अपना उदरपूरण कर बैल की तरह चला आ रहा है।’
मुनिराज ने मंत्रियों के वचन सुने, किन्तु वे शांत रहे और किसी भी प्रकार का विकार अपने अंतरूकरण में उत्पन्न नहीं होने दिया। पुनरू मंत्रियों ने मुनिराज के समक्ष ही संघ के प्रति भी निंदा वचन कहे। जिसे सुनकर मुनिराज विचलित हुए बिना नहीं रह सके। वे उन निंदा वचनों को सहन न कर सके। उन्हें आचार्यश्री द्वारा प्रदत्त आज्ञा के विषय में ज्ञान नहीं था। अतरू उन्होंने मंत्रियों को संबोधित करते हुए कहादृ‘तुम्हें अपनी विद्या का मिथ्याभिमान है। यदि यथार्थ विद्या के धारक हो तो मेरे साथ शास्त्रार्थ कर अपने यथार्थ ज्ञान का प्रदर्शन करो। तब ही वास्तविकता ज्ञात हो सकेगी। मुनिवर के वचन सुनकर मिथ्याभिमानी मंत्रियों को तत्काल क्रोध आ गया और वे तत्क्षण मुनिराज के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार हो गए। किन्तु मुनिराज के यथार्थ ज्ञान के समक्ष मंत्रियों का मिथ्या ज्ञान क्षण भर भी टिक न सका और वे निरूत्तर हो गए। जिस प्रकार एक ही दिनकर का अबाधित प्रकाश चतुर्दिक में व्याप्त अंधकार को दूर कर देता है, उसी प्रकार श्रुतसागर मुनिराज ने अनेकांतवाद के युक्तिबल से क्षण मात्र में उन मंत्रियों के मिथ्याभिमान एवं मिथ्या ज्ञान रूप तक को निरस्त कर उन्हें निरुत्तर कर दिया। राजा के समक्ष निरुत्तर एवं अपमानित हुए वे मंत्री उस समय तो विष का घूंट पीकर राजा के साथ चल दिए। किन्तु उनके मन में प्रतिशोध की तीव्र भावना जागृत हो उठी और इसके लिए वे उचित अवसर एवं उपाय खोजने लगे। साथ ही सब तरह से वे अपने आपको असहाय सा अनुभव करने लगे।
इधर जब मुनि श्रुतसागर ने अपने संघ में आकार आचार्यश्री को सम्पूर्ण वृतान्त सुनाया तो वे संघ पर आने वाले भावी संकट के निवारण हेतु उपाय खोजने लगे। अंत में उन्होंने श्रुतसागर मुनि से कहाकृ‘यह तो ठीक नहीं हुआ। अब तो निश्चित रूप से संघ पर कोई भारी विपत्ति आने की आशंका है। अस्तु जो घटित हो चुका है उसका अनुचिंतन न कर अब सम्पूर्ण संघ की रक्षा के लिए तुम उसी स्थान पर जाकर कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित हो जाओ।’
आचार्य देव की आज्ञा को शिरोधार्य कर मुनि श्रुतसागर अविचलित भाव से समस्त मुनिसंघ की रक्षा हेतु वहां से चलकर शास्त्रार्थ वाले स्थान पर आकर सुमेरू पर्वत के समान निश्चलता के साथ धैर्यपूर्वक कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हो गए।
इधर अपमानित एवं पराजित हुए मंत्री अपने मानभंग का प्रतिशोध लेने के उद्देश्य से रात्रि में मुनिराज का वध करने हेतु नगर के बाहर आए। मार्ग में शास्त्रार्थ वाले स्थान पर ही मुनिवर को ध्यानस्थ देखकर उनकी प्रसन्नता की सीमा नहीं। परस्पर मंत्रणा करने के पश्चात् उन्होंने निर्णय किया और बोलेकृ‘यही दुष्ट हमारा अपमान करने वाला है। अतरू पहले इसे यहीं समाप्त कर देना चाहिए।’
ऐसी विकृत और दुष्ट भावना से प्रेरित होकर चारों मंत्रियों ने मुनि के भिन्नकृभिन्न अंग छेद करने के उद्देश्य से एक साथ खड्ग उठाई और मुनिराज पर प्रहार किया। किन्तु मुनिराज के पूर्वजन्मकृत पुण्य प्रभाव से वहां वनदेवी प्रकट हुई और उन्होंने चारों दुष्ट मंत्रियों को तत्काल वहीं कीलित कर दिया। अर्थात् कील की भाँति वे अपनी यथावत मुद्रा और स्थिति में वहीं गड़ गए और रातभर टस से मस न हो सके। ऐसा प्रतीत होता था मानो वहां चार मूर्तियां स्थापित कर दी गई हों।
प्रातरूकाल नगरवासी जन जब वहां से निकले तो ध्यानस्थ मुनिराज एवं खड्ग उठाए हुए चारों कीलित मंत्रियों को देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। मंत्रियों की दुष्टता की बात क्षण भर में सारे नगर में फैल गई। सारे नगरवासी इस अभूतपूर्व दृश्य को देखने के लिए उमड़ पड़े। समाचार सुनकर राजा स्वयं भी वहां पहुँचा। कुछ देर बाद जब वन देवी का प्रभाव समाप्त हुआ और चारों मंत्री पुनरू अपनी स्वाभाविक स्थिति में आ गए तो लज्जा के कारण नगर वासियों एवं राजा के समक्ष अपना सिर ऊँचा न कर सके। राजा ने उन्हें धिक्कारते हुए कहाकृ‘धिक्कार है तुम्हें! तुम लोग इन निर्दाेष मुनिराज का वध करने आए थे। ऐसे पापियों एवं दुष्ट लोगों के लिए मेरे नगर में कोई स्थान नहीं है। इतना कहकर राजा ने उन चारों मंत्रियों को गधे पर बैठाकर नगर के बारह निकाल दिया। वहाँ से अपमानित व लज्जित होकर निकले हुए वे चारों मंत्री हस्तिनापुर की ओर चल दिए। मुनि संघ का उपद्रव शांत हुआ जानकर समस्त मुनियों ने अपना ध्यान समाप्त किया और श्री अंकपनाचार्य देव अपने सात सौ मुनियों के संघ सहित वहां से विहार करते हुए चल दिए। जिस समय यह घटना घटित हुई उस समय हस्तिनापुरी में पद्म राजा राज्य का संचालन करते थे। किन्तु उस समय वे अपने पड़ोसी राजा सिंहबल से बहुत परेशान थे। इधर उज्जयिनी से निष्कासित चारों मंत्रियों ने अपने बुद्धि कौशल से सिंहबल को कैदकर उसे पद्म राजा के समक्ष प्रस्तुत किया। इससे पद्म राजा उन मंत्रियों पर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और अपनी मंत्रि परिषद में उन्हें स्थान दे दिया। साथ ही यथेच्छ वस्तु मांगने का वचन भी दिया। मंत्रियों ने किसी उपयुक्त समय पर भविष्य में वचन लेने का निवेदन कर उस वचन को भविष्य के लिए सुरक्षित करा लिया।
उधर श्री अंकपनाचार्य भी अपने सात सौ मुनियों के संघ सहित विहार करते हुए कुछ दिनों बाद हस्तिनापुरी में पधारे और वहीं नगर से बाहर एक उद्यान में चातुर्मास योग धारण किया। प्रजाजन अत्यन्त उत्साहपूर्वक उनकी वंदना करने लगे। श्री अंकपनाचार्य के संघ का आगमन सुनते ही बलि आदि चारों दुष्ट मंत्री उज्जयिनी में हुए अपने घोर अपमान का प्रतिशोध लेने के लिए उपाय खोजने लगे। किन्तु वे जानते थे कि पद्म राजा मुनियों का परम भक्त है। अतरू उनके समक्ष अपना वश नहीं चल सकेगा। उसी समय बलि को राजा द्वारा दिए गए अपने पूर्व वचन का स्मरण हो गया और वह अपने सहयोगियों से बोलाकृ‘चिंता मत करो, राजा ने हमें जो वचन दिया था उसके बदले हम सात दिन का राज्य मांग लें। बस, शासन हमारे हाथ में आने पर राजा हमारे कार्य में हस्तक्षेप नहीं कर पाएगा। ऐसा विचार कर वे चारों दुष्ट मंत्री राजा के पास गए और अपने पूर्व वचन का स्मरण दिलाते हुए उसके बदले में सात दिन का राज्य मांग लिया। यह सुनते ही राजा स्तब्ध रह गया। उसे किसी अनर्थ की आशंका हुई। किन्तु वचनबद्ध होने के कारण वह विवश था। सात दिन के लिए शासन की बागडोर दुष्ट मंत्रियों के हाथ में चली गई।
शासन हाथ में आते ही चारों दुष्ट मंत्रियों ने एक महान यज्ञ के बहाने मुनिसंघ पर घोर महान उपसर्ग प्रारम्भ कर दिया। जहां पर मुनिसंघ विराजमान था वहीं उनके चारों तरफ एक यज्ञ मण्डप की रचना कर उसमें चारों तरफ लकड़ियों के ढेर लगवा दिए। उसमें भीषण अग्नि प्रज्जवलित करके उसमें पशुओं का होम करना प्रारम्भ कर दिया। यज्ञ का धुँआ और पशु होम की दुर्गन्ध से मुनिसंघ को असह्य वेदना और कष्ट झेलना पड़ा। इस प्रकार उन्होंने मुनि संघ को घोर कष्ट दिया। इतना कष्ट होने पर शांत मुद्रा धारण कर मुनिवर अत्यन्त धैर्यपूर्वक कष्ट को सहन करते हुए सुमेरु सदृश निश्चल चित्त से निर्विकार भावयुक्त आत्मध्यान में लीन हो गए। उनके मन में कष्ट देने वालों के प्रति किंचित मात्र भी क्रोध या प्रतिशोध की भावना जागृत नहीं हुई। इस कष्ट को वे अपना पूर्वजन्मकृत अशुभ कर्म का फल मान रहे थे। अतरू निर्विकार भाव से उसे वे सहन कर रहे थे।
हस्तिनापुरी में जब यह घटना घट रही थी तब मुनिश्री विष्णु कुमार के गुरु श्रुतसागरजी महाराज मिथिला नगरी में विराजमान थे। वे निमित्त ज्ञान (ज्योतिष आदि) के ज्ञाता थे। आकाश में अचानक श्रवण नक्षत्र को कांपता हुआ देखकर उनके मुख से अचानक ‘हा’ शब्द निकला। गुरुमुख से यह उद्गार शब्द सुनकर पुष्पदंत नामक एक क्षुल्लक ने इसका कारण पूछा। मुनिराज ने कहाकृहस्तिनापुरी में अकंपनाचार्य आदि ७०० मुनियों पर पापी बलि द्वारा घोर उपसर्ग किया जा रहा है।’
गुरुमुख से यह सुनते ही पुष्पदंत क्षुल्लक के हृदय में संघ के प्रति वात्सल्य भाव उमड़ आया। उन्होंने करुणार्द्र होकर गुरु जी से उपसर्ग निवारण का उपाय पूछा। मुनिराज ने बतलाया कि विष्णु कुमार मुनि को विक्रिया ऋद्धि प्रकट हुई है और उस ऋद्धि के प्रभाव से वे उपसर्ग को शांत कर मुनिसंघ की रक्षा कर सकते हैं।
क्षुल्लक पुष्पदंत तत्काल ही विष्णुकुमार मुनि के पास पहुंचे और श्री गुरु जी द्वारा बतलाई गई सम्पूर्ण घटना उन्हें कह सुनाई। विष्णु कुमार मुनि को तो अपनी विक्रिया ऋद्धि का आभास नहीं था। पुष्पदंत द्वारा ज्ञात होने पर परीक्षा के लिए उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया तो कहीं भी रुके बिना वह काफी दूर तक चला गया। मुनिसंघ पर हो रहे उपसर्ग का समाचार सुनकर वे तत्क्षण हस्तिनापुर पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपने भ्राता राजा पद्म से बोलेकृ‘अरे बुधं’ तुम्हारे राज्य में मुनियों पर यह उपसर्ग और अत्याचार कैसा ?
राजा पद्म विष्णु कुमार मुनि के चरणों में गिर पड़े और अश्रुप्लवित नेत्रों से उनकी ओर देखते हुए तथा अपनी निरूसहाय अवस्था बतलाते हुए करुणा भाव से बोलेकृप्रभो ! राज्य सत्ता मेरे हाथ में नहीं है। दुष्ट बलि ने मुझे वचनबद्ध करके शासन की बागडोर अपने हाथ में ले ली है। अतरू मैं विवश हूँ। भगवन् ! आप महासमर्थ हैं। अतरू आप ही इस उपसर्ग को किसी तरह दूर करके शीघ्र मुनिसंघ की रक्षा का उपाय कीजिये।
वात्सल्य भाव प्रधान मुनिश्री विष्णु कुमार ने अपना मुनित्व छोड़कर विक्रिया ऋद्धि से बौने ब्राह्मण का वेश बनाया और यज्ञ मण्डप में जाकर सुमधुर वचनों से बलि को प्रसन्न कर दिया। प्रसन्न होकर राजा बलि ने ब्राह्मण से कहाकृमहाराज ! आप हमारे यहाँ पधारे हैंकृयह हमारा सौभाग्य है। आप जो चाहे निरूसंकोच मांग लें।
बौने ब्राह्मण के भेष में मुनि विष्णु कुमार ने कहाकृ‘मैं सब बातों से संतुष्ट हूँ। मुझे किसी भी वस्तु की आवश्यकता नहीं है।’
किन्तु राजा बलि ने जब विशेष आग्रह किया तो अनिच्छापूर्वक ब्राह्मण वेशधारी मुनि विष्णुकुमार ने कहादृठीक है। यदि आपका इतना ही आग्रह विशेष है तो मुझे तीन डग भूमि दे दीजिये।’
यह सुनकर राजा बलि को अत्यधिक आश्चर्य हुआ। साथ ही ब्राह्मण के निष्काम भाव को देखकर अत्यधिक प्रभावित भी हुआ। उसने ब्राह्मण को तीन डग भूमि देने का वचन दिया और बोलाकृमहाराज ! आप जहाँ चाहें, वहां अपने पैरों से तीन डग भूमि नाप लें।
राजा बलि के द्वारा वचन देने के साथ ही मुनि विष्णुकुमार ने अपना बौनापन त्यागकर विक्रिया ऋद्धि के द्वारा अपने स्वरूप को बढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। ब्राह्मण के बढ़ते हुए स्वरूप को देखते हुए राजा बलि आश्चर्य से किंकर्तव्य विमूढ़ हो गया। मुनि विष्णु कुमार ने अपने पैरों को फैलाते हुए कहादृअरे दुष्ट! देख, मेरा एक पैर तो मेरू पर है और दूसरा पैर मानुषोत्तर पर। बोल, अब तीसरा पैर कहाँ रखूं ?विष्णु कुमार की इस विक्रिया से पृथ्वी पर चारों ओर कोलाहल मच गया। देवगण भी आश्चर्य चकित होकर वहां आए और दुष्ट बलि को बांधकर विष्णु कुमार की स्तुति करते हुए कहने लगेकृप्रभो ! क्षमा कीजिये। यह दुष्ट बलि का दुष्कृत्य है। वह आपके चरणों में उपस्थित है। कृपा कर अपनी विक्रिया को समेट लीजिये।
बलि आदि चारों मंत्री भी विष्णु कुमार के चरणों में गिर पड़े और अपने घोर अपराध के लिए बारम्बार क्षमा याचना करने लगे। उन्होंने अपने दुष्कृत्य के लिए पुनरूकृपुनरू पश्चाताप किया। तत्काल ही अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों का घोर उपसर्ग समाप्त हो गया। मुनिश्री विष्णु कुमार ने अपनी विक्रिया समेट ली और चारों ओर शांति छा गई। राजा पद्म, चारों मंत्रिगण एवं नगरवासी, समस्त प्रजाजन अत्यन्त भक्तिपूर्वक मुनियों की वंदना करने लगे। चारों मंत्रियों ने उनके चरणों में गिरकर घोर अपराध के लिए क्षमा याचना की और अपने द्वारा किए गए दुष्कृत्यों के लिए पश्चाताप करने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने हिंसामय मिथ्यामत का परित्याग कर जैनधर्म ग्रहण कर लिया और उसी के उपासक बन गए।
इस प्रकार मुनिसंघ पर हो रहे उपसर्ग के दूर होेने के कारण तथा सात सौ मुनियों की रक्षा होने के कारण वह अलौकिक दिवस ‘रक्षा दिवस’ के नाम से कहलाया जाने लगा और प्रतिवर्ष श्रावण शुक्ला १५ (पूर्णिमा) को वात्सल्य पूर्णिमाकृरक्षा पर्व (रक्षा बंधन) के रूप में मनाया जाने लगा। तब से लेकर आज तक जैन धर्मानुयायियों द्वारा प्रतिवर्ष यह पर्व अत्यन्त हर्ष और उल्लास के साथ धार्मिक रूप में मनाया जाता है। इस पर्व के द्वारा वे असहायों की रक्षा के प्रति अपने कर्तव्य को समझते हैं और हिंसामय कृत्यों का परित्याग कर अहिंसा को जीवन में आत्मसात करने का प्रत्यन्त करते हैं।
जैन धर्म में रक्षा बंधन पर्व का अपना विशेष महत्त्व है। जैनधर्म में रक्षा बंधन का लौकिक महत्त्व उतना नहीं है, जितना धार्मिक महत्व है। अतरू यह पर्व मनुष्य को आध्यात्मिक अभ्युत्थान हेतु विशेषतरू प्रेरित करता है। जैन धर्म में इस पर्व से संबंधित एक कथा विशेष का उल्लेख मिलता है जिसका धार्मिक दृष्टि से बड़ा महत्त्व है। कथा का प्रमुख अंश निम्न प्रकार है।
साभार-
राजकुमार जैन, इटारसी

 

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